मंजूर है…..

 

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हर सहर तेरा जु़ल्फें लहराना

आइने को देखना और फिर मुस्कुराना

रश्क् कर देता है मेरे दिल में

पर तुझसे क्या रश्क करूँ ऐ आइने

तू तो बेजुबां और बेकसूर है

 

रेशम की तरह सिमटी हुई वो मेरी बाँहों में

और टकटकी लगाए देखता चाँद उसकी निगाहों में

क्या रहूँ चाँद से खफा़ , ये जान के, क्या है उसकी ख़ता

आखिर चाँद से भी रोशन उसके चेहरे का ये नूर है

 

वो बारिश में उसका भीग जाना

और चुपके से सूरज का आ जाना

रोशन करना उसको

जैसे पहाड़ों पर भीगी हुई वो ओस है

वो मेरी हबी़ब है या कोई कोहीनूर है

 

हवाओं का सरपट दौड़ना

उसके होंठों को शिद्दत से चूमना

हो ये कुदरत की कोई शाजिश

या उसकी बेवफाई

उसकी मोहब्बत में ये रुसवाई

हमें उसकी बेगानगी़ भी म़जूर है

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